अगर पुरुष आँख मारना और महिलाएं ताने मारना छोड़ दे तो धरती स्वर्ग बन जाए
उदयपुर। डॉ मुनि शांतिप्रिय सागर जी महाराज ने कहा कि बुढ़ापे में काया, अंधरे में छाया और अंत समय में माया साथ नहीं देती है। हम जीवनभर शरीर, धन, सेक्स, रूप, रंग, गहने, जमीन और जायदाद के प्रति आसक्त होते हैं। चाहे गौरी चमड़ी हो या काली राख के स्तर पर तो सब एक होना है फिर किस बात का मोह। उन्होंने कहा कि संसार का सेवन तो प्यास के छिलकों को उतारना और कुत्ते के द्वारा हड्डी को चबाना है चाहे कितना ही सेवन कर लो अंत में तो अतृप्ति के अलावा कुछ हाथ नहीं लगने वाला। व्यक्ति सोचे कि हजार बार भोगकर भी क्या वह कभी तृप्त हो पाया। अगर वह यूँ ही डूबा रहेगा तो फिर कब मुक्त हो पाएगा। शरीर को सोने से सजाना और कुछ नहीं मिट्टी से मिट्टी को सजाना है और इसमें आसक्त होने का नाम ही मिथ्यात्व है। व्यक्ति ईट, चूने, पत्थर से मकान बनाता है। मकान गिर जाए तो इंसान को रोना आता है, पर इंसान गिर जाए तो क्या मकान को रोना आता है। ईट-चूने-पत्थर के मकान में चेतना की आसक्ति मूर्च्छा नहीं तो और क्या है।
उन्होंने कहा कि दुनिया में चाहे करोड़पति आए या रोड़पति सबके आने और जाने का तरीका एक जैसा है फिर किस बात का गिला। गुमान करने वालों से संतश्री ने कहा कि जब-जब मिट्टी पर नजर चली जाए तो सोचना एक दिन इसी मिट्टी में मिलना है और जब-जब आकाश की ओर नजर जाए तो सोचना एक दिन ऊपर चले जाना है फिर किस बात का गुमान। अरे, जिंदगी में जमीन का धंधा करने वाले और कपड़े बेचने वाले को मरते समय छः फुट जमीन और दो गज कफन का टुकड़ा मिल जाए तो वह खुद को किस्मत वाला समझे। इस काया और माया का अंत कैसा होगा कोई पता नहीं है। अगर पुरुष आँख मारना और महिलाएं ताने मारना छोड़ दे तो धरती स्वर्ग बन जाए।
उन्होंने कहा कि आज तक कोई भी इंसान न तो धन और वासना से तृप्त हो पाया न ही पद और यश से। लखपति करोड़पति होना चाहता है और करोड़पति खरबपति, अरे जब पहले से ही किसी पत्नि के पति हो तो फिर और कौनसे पति होना चाहते हो। उन्होंने कहा कि संसार कुछ नहीं, एक सपना है। जब आँख खुलती है तो नींद के सपने टूट जाते हैं और जब आँखें बंद हो जाती है तो संसार के सपने टूट जाते हैं।
उन्होंने कहा कि अब मंदिर शहर के बाहर होने चाहिए ताकि व्यक्ति शांति से प्रभु का भजन कर सके और श्मशान शहर के बीचोबीच होने चाहिए ताकि व्यक्ति झूठ-जांच, कूड़-कपट, तेरी-मेरी की भावना से थोड़ा उपरत हो सके कि अततः तो मुझे यही आना है।
अंतर्मन में अनासक्ति के विकास के लिए मुनिप्रवर ने भेदविज्ञान ध्यान का भी अभ्यास करवाया।