परमात्मा के पाने का एक ही सहज उपाय है, प्रेम और भक्ति का मार्ग। परमात्मा को कभी बुद्धि से नहीं खोजा जा सकता। परमात्मा की खोज ही सदैव हृदय से ही हो सकती है।आदि काल से ही परमात्मा की खोज जो भी व्यक्ति अपनी बुद्धि से
करते हैं।वो परमात्मा को कभी भी
खोज ही नही पाते हैं। बुद्धि से सदैव
खोजने पर परमात्मा आज तक कभी किसी को कहीं नहीं मिला।
यदि परमात्मा को कभी बुद्धि से खोजने ना भी जाय जाय! परमात्मा को सच्चे हृदय से केवल विरह की याद में पुकार भी लिया जाय तो प्रेमी भक्त जहां भी किसी भी स्थान
बैठा है,वही परमात्मा पहुंच जाता है। प्रेमी भक्त को खोजने नहीं जाना
पड़ता।भक्त मार्ग का शायद येअनुठा
ही नियम है। प्रेमी को परमात्मा को
खोजने नहीं जाना पड़ता। प्रेमी की
विरह वेदना करुणा की एक मात्र पुकारही प्रेमी भक्त को खोजता हुआ
परमात्मा स्वयं चला आता है।
ज्ञानी परमात्मा को खोज कर भी कभी नहीं पाता। प्रेमी भक्त बिना खोजे ही मात्र विरह की पुकार में
ही परमात्मा को पा लेता है।
परमात्मा को खोज ने वाले जानते
कहां?या तो मंदिर में खोजने जाएंगे।
मस्जिद चर्च गुरु द्वारा में जायेंगे।या
धार्मिक तीर्थ स्थलों में जायेंगे। परमात्मा के खोज में अभी तक जो भी गया है बाहर ही गया है।वह खोजने में चारों दिशाओं में खोजने
में भटकेगा।वह परमात्मा को जमीन
आकाश में ही खोजेगा। किंतु परमात्मा मंदिर मस्जिद चर्च गुरु द्वारा
काबा कैलाश धार्मिक तीर्थ स्थलों धार्मिक ग्रंथों तक ही सीमित नहीं हैं।
परमात्मा कहीं भी नहीं है !किन्तु परमात्मा में ही सब जगह है।
परमात्मा को मंदिर मस्जिद चर्च गुरु द्वारा में कैसे खोज सकता हैं। परमात्मा को खोज ने गये वहीं भूल हो गई।खोजने तो सदैव उसे जाना पड़ता है, जो कही खोया हो!या उसका कोई पता ठिकाना कोई होलिया
हो।जो किसी निश्चित स्थान पर रहे रहा हो।जिसकी तरफ कुछ इशारा किया जा सके की वह यहां है। परमात्मा किसी एक स्थान तक सीमित नहीं है।वह सर्व व्यापक सब
जगह है। यही कारण है कि परमात्मा का कोई एक स्थान ही निश्चित नहीं है। वह चारों तरफ है। परमात्मा कहीं भी नहीं है, किन्तु परमात्मा में ही सब कुछ है। परमात्मा को जब कोई खोज ने गया , वह खोजने ही भटक गया। क्यों कि परमात्मा खोजने वाले में ही मौजूद हैं।
भक्त प्रेमी के जीवन में वह स्वर्णिम घड़ी आती है।जिस दिन प्रेमी भक्त का प्रभु मिलन होता है।उस क्षण उसे आश्चर्य होता है कि,जिस परमात्मा को हमने बड़े बड़े मंदिरो मस्जिदों गुरु
द्वारा चर्च धार्मिक तीर्थ स्थलों धार्मिक ग्रंथों में भी खोजने में नहीं पाया! उसे
अपने ही हृदय रुपी मंदिर में केवल विरह हृदय की पुकार में ही पा लिया। उस दिन भक्त को विश्वास ही नहीं होता जिसे हम खोजने चले थे।
वह खोजने वाले के हृदय में ही छिपा है। अज्ञानता वश जिस परमात्मा को खोज ने चले थे, वह हि मेरा निजी
स्वारुप है।
मनुष्य परमात्मा को खोज ही नही सकता है। परमात्मा ही मनुष्य को खोज सकता है। मनुष्य में परमात्मा की चाह और विरह की पुकार हो। तुम परमात्मा को कहां तक खोजों गे।खोजने में ही तुम्हारी भूल हो गई। परमात्मा को खोज ने जाओगे कहां! परमात्मा का कोई रुप रंग गुण नहीं है। परमात्मा कोई व्यक्ति विशेष नही। जिसकी एक झलक पाने पर
उसे पहिचान लोगे। जैसे प्रेम की अनुभूति होती हैं। ऐसे ही परमात्मा
तो केवल हृदय की अनुभव एवं अनुभूति है।
भक्त की पराकाष्ठा है परमात्मा में
लीन हो जाना। जैसे बूंद सागर में विलीन हो जाती है, जरा भी भिन्न नहीं होती।बूंद ही सागर हो जाती है।
कोई सीमा का भेद नहीं रह जाता है।
उस अभेद में भक्त और भगवंत दोनों एक ही हो जातें हैं। फिर परमात्मा को खोज ने की कभी जरुरत ही नहीं
होता। स्वयं ब्रह्म मय हो जाता है।
अहंब्रह्मास्मि!