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भारत में डायबिटिक रेटिनोपैथी को नियंत्रित करना – यह बहुत आसानी से नहीं होने वाला है

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भारत की स्थिर आर्थिक विकास की रफ़्तार की वजह से लोगों के जीवन स्तर में पहले की तुलना में काफ़ी सुधार हुआ है. खास तौर पर, बड़े शहरों और शहरी इलाकों में लोगों की ज़िदंगी काफ़ी आसान हुई है. शहरों में रहने वाले लोगों की जीवनशैली अब पश्चिमी देशों से बहुत ज़्यादा मिलती-जुलती है. इस बेहतर जीवनशैली का ही नतीजा है कि शहरी भारतीय अब बहुत-सी पुरानी तरह की बीमारियों और मुश्किल हालात से दूर हैं. जैसे कि कुपोषण, साफ़-सफ़ाई का खराब स्तर, गंदे भोजन और पानी जैसी समस्याओं से परेशान नहीं हैं.

हर सिक्के का दूसरा पहलू होता है, यहां भी कुछ वैसा ही है. रहन-सहन का अच्छा स्तर, शहरीकरण के विस्तार और बेहतर खान-पान की सुविधाओं के साथ जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां भी बढ़ रही हैं. खास तौर पर बच्चों में मोटापे का बढ़ना और मोटापे की वजह से हाई ब्लड प्रेशर और डायबिटीज़ जैसी बीमारियों का भी प्रसार हुआ है

साल 2019 तक भारत में डायबिटीज़ के मरीजों की संख्या 77 मिलियन तक थी. साथ ही, 43.9 मिलियन मरीज़ ऐसे थे जिनकी बीमारी की पहचान नहीं हो पाई थी. वैश्विक स्तर पर, हर दो में से एक वयस्क डायबिटीज़ मरीज़ (इसमें भी टाइप 2 डायबिटीज की संख्या ज़्यादा है, 20–79 वर्ष की आयु सीमा में) अपनी बीमारी और इसके लक्षणों के बारे में नहीं जानते हैं.

भविष्य में इस संख्या के बढ़ने के आसार हैं. इंटरनेशनल डायबिटीज फ़ेडरेशन एटलस 2019 के मुताबिक, 2030 तक डायबिटीज़ मरीज़ों की संख्या बढ़कर 101 मिलियन तक हो सकती है. 2045 में यह संख्या बढ़कर 134 मिलियन तक पहुंच जाएगी. भारत जैसे देश में जहां स्वास्थ्य सेवाओं का संकट है, वहां यह एक बहुत बड़ी चुनौती बनने वाली है. डायबिटीज़ के साथ बहुत सी और बीमारियों का भी खतरा बना रहता है, क्योंकि शरीर के कई अंगों के काम करने की क्षमता प्रभावित होती है. डायबिटीज़ मरीजों के साथ किडनी की समस्या होने का खतरा भी ज़्यादा होता है. निचले हिस्से और आंखों को भी इस बीमारी की वजह से काफ़ी नुकसान पहुंच सकता है.

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